matihindimasik: मानवीय क्षमता के अनोखे रूप स्वतन्त्रता के प्रारम्भिक वर्षों में भारत में खेलों की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । सामान्य घरों में और शहरी गली -गलियारों में यही माना जाता था कि पढ़ाई -लिखाई के माध्यम से ही धनोपार्जन और सामाजिक उच्चता प्राप्त की जा सकती है । खेल तो बचपन की नासमझी में किये गए क्रीड़ा क्रिया कलाप ही थे । यह कहावत घर -घर में दोहराई जाती थी " पढोगे -लिखोगे तो होंगे नवाब ,खेलोगे कूदोगे तो होंगे खराब । " काफी हद तक ऐसा कुछ था भी । कुछ अपवादों को छोड़कर औसत प्रतिभा के खिलाड़ी अधिकतर अभाव का जीवन जीते थे । फिर आया परिवर्तन का एक तूफानी दौर ।योरोप के विकसित देशों और रूस तथा अमरीका की खेल प्रतिस्पर्धाओं नें भारत को नये सिरे से सोचने की प्रेरणा दी । क्रिकेट का खेल अंग्रेजों के शासन काल में ही भारत में लोकप्रिय हो गया था । वस्तुतः अपने आधुनिक रूप में क्रिकेट का खेल इंग्लैण्ड की ही देंन है । यह दूसरी बात है कि एक परिवर्तित रूप में यह खेल भारत के गाँव -गलियारों में भिन्न -भिन्न नामों से खेला जाता था । क्रिकेट के खेल की लोकप्रियता नें क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ियों को समाज नें मान्यता दी और वे हीरो के रूप में उभर कर सामने आने लगे । प्रारम्भ में यह खेल स्कूलों ,कॉलेजों और उच्च वर्गीय श्रेणियों तक ही सीमित था पर धीरे -धीरे इसकी व्यापकता बढ़ती गयी और वह मझोले नगरों से होता हुआ गलियों ,खलिहानों तक पहुँच गया । इस समय तो क्रिकेट के खिलाड़ी सिनेमायी हीरो से प्रसिद्ध और पैसा किसी में भी कम दिखाई नहीं पड़ते । दरअसल सच्ची डेमोक्रेसी तो खेलों में ही दिखायी पड़ती है । क्रिकेट के अधिकतर खिलाड़ी सामान्य घरों निकलकर आये हैं । कपिल देव ,महेन्द्र सिंह धोनी ,वीरेन्द्र सहवाग सामान्य घरों निकलकर प्रसिद्ध के शिखर पर पहुंचे हैं । टी -ट्वंटी के कई खिलाड़ी तो लोअर मिडल क्लास से निकलकर आगे आये हैं और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में अपना स्थान बनाते जा रहे हैं । आज कौन सा ऐसा भारतीय युवक है जिसे सचिन तेंदुलकर या महेन्द्र सिंह धोनी पर गर्व नहीं है । राजनीति और सिनेमा की तरह परिवार के प्रभाव से खेलों में नहीं बढ़ा जा सकता । यहाँ तो सफलता के लिये अपनी विशिष्ट प्रतिभायें अब संसार के प्रत्येक देश के होनहार युवाओ को अपनी ओर आकर्षित करने करने लगी हैं । राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी पुरष्कार और ऊँची नौकरियाँ खेल प्रतिभाओं के लिए सहज रूप से उपलब्ध होने लगी हैं । चाहे एशियाड हों चाहे कॉमन वेल्थ गेम्स सभी के लिए अत्यन्त विशाल पैमाने पर आयोजनों की व्यवस्था करनी होती है और इसके लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय साधनों से एक बहुत बड़ी धनराशि जुटानी पड़ती है । इन आयोजनों में राष्ट्र के उस भू -भाग का नक्शा ही बदल जाता है जहाँ बहु राष्ट्रीय खेलों का आयोजन होता है । खेल प्रतिस्पर्धाओं और ओलम्पियाड की तो बात ही छोड़िये । हर चार वर्ष बाद होने वाले ओलम्पिक गेम्स विश्व के किसी भी राष्ट्र की नाक को ऊँची या नीची कर देते हैं । पिछले आयोजित ओलम्पिक खेलों में चीन विश्व के सबसे सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा है और अमरीका पिछड़कर नंबर दो पर ही पहुँच पाया है । फिर भी अमेरिकन प्रतिभा में भविष्य में प्रथम स्थान छीन लेने की स्पष्ट झलक दिखाई पड़ती है । ओलम्पिक खेलों में भारत का परफार्मेन्स बहुत अच्छा तो क्या साधारण भी नहीं कहा जा सकता । जबकि कुछ छोटे और पिछड़े अप्रवासी देश इस क्षेत्र में विश्व के लिए चुनौती बने हुए हैं । पर एक सौ दस करोड़ के देश में सौ -पचास खेल प्रतिभायें देश की हींन भावना को दूर करने में समर्थ नहीं हैं । अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में अभी हम अपनी पकड़ नहीं बना पाये हैं और भारत का जनमानस इस हीन भावना से ग्रस्त है कि वह एथलेटिक्स और फील्ड प्रतियोगिताओं में विश्व स्तरीय खेल प्रतिभायें नहीं उपजा सका है । पर निराशा से हाथ पर हाथ धरकर बैठना भी उचित नहीं है । केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें अब काफी बड़ी धनराशि भिन्न -भिन्न खेलों के संवर्धन और विकास पर खर्च कर रहीं हैं । कितनें ही स्टेडियम और ट्रैक फील्ड बनाये गये हैं और बनाये जा रहे हैं । हर प्रतिभाशाली खिलाड़ी चाहे वह किसी खेल का हो ,आज सुनहरे भविष्य का सपना देखता है और स्वतन्त्र भारत में उसके लिए प्रसिद्ध और सम्पन्नतः के द्वार खुल गये हैं । अब अधिकाँश शिक्षित घरों में यह धारणा बन गयी है कि यदि कोई लड़का या लड़की पढ़ाई में साधारण है और खेल के सम्बन्ध में प्रतिभा संपन्न और असाधारण है तो उसे खेलों की ओर ही पूरी तरह से प्रशिक्षित किया जाय और इसी से उसका भविष्य बन जायेगा । पर हमें भूलना नहीं होगा कि खेल प्रतिभा भी बहुत कुछ निसर्ग की देन होती है और यदि व्यक्ति में उसकी क्षमता के बीज न हों तो केवल प्रशिक्षण से उसे उच्चस्तरीय नहीं बनाया जा सकता । जैसे मस्तिष्क का निरालापन और अन्वेषक प्रतिभा प्रकृति की एक निराली देंन है वैसे ही खेल प्रतिभा भी प्रकृति के लिये विकास ,संवर्धन और संतुष्टन के अक्षय श्रोत मिलने चाहिये । हर्ष है कि पिछले एकाध दशक से भारत सरकार और राज्य सरकारें इस दिशा में कई सार्थक कदम उठाने की ओर प्रवृत्त हुयी हैं । यहाँ मैं यह कहना चाहूंगाँ कि खेलों को बढ़ावा देने का अर्थ पढ़ाई -लिखाई को हेय दृष्टि से देखने के लिये उत्साहित करना नहीं है । पढना -लिखना भी उतना ही अनिवार्य है जितना खेलों में प्रवृत्त होना सच तो यह है कि हर औसत दर्जे का उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति समाज के लिए कोई न कोई उपयोगी काम करके अपनी जीविका अर्जित कर सकता है । जबकि हर औसत खिलाड़ी को केवल सरकारी सहायता के सहारे सम्मानजनक सामाजिक स्थान नहीं दिया जा सकता । खेल के क्षेत्र में विशिष्ट प्रतिभायें हीं चर्चित ,सम्मानित और साधन सम्पन्न हो पाती हैं जबकि पढ़ाई -लिखाई के क्षेत्र में औसत प्रतिभायें भी एक मध्य वर्गीय जीवन यापन करने के लिये साधन जुटाने में समर्थ हो सकती हैं उचित यही होगा कि खेलों को अकेडमिक दक्षता के साथ जोड़कर देखा जाय और दोनों का आदर्श काम्बिनेशन स्थापित किया जाये । दोनों क्षेत्रों की विशिष्ट प्रतिभायें अपने लिये विशिष्ट स्थान बना सकेंगीं पर दोनों में औसत दक्षता पाने वाले युवक और युवतियाँ राष्ट्र के लिये एक गौरवशाली पृष्ठ भूमि तैय्यार कर सकते हैं । यह ठीक है कि ऊपर लिखी हुयी कहावत " पढोगे लिखोगे तो होंगे नवाब ,खेलोगे कूंदोगे तो होंगे खराब । " आज सार्थक नहीं रही है पर यह भी उतना ही सच है कि यदि हम इस कहावत को उलटकर यह कहने लगें " खेलोगे कूंदोगे होंगे नवाब ,पढोगे लिखोगे तो होंगे खराब ।" यह कहना भी आज सार्थक नहीं माना जायेगा खेल और पढ़ायी दोनों में ही औसत दक्षता प्राप्त करना हमारा लक्ष्य होना चाहिये । स्कूल -कालेजों और विश्व विद्यालयों में ही नोबेल प्राइज पा सकने वाली प्रतिभायें और ओलम्पिक गोल्ड जीत पा जाने वाली प्रतिभायें पनपायी जा सकती हैं । पढ़ाई -लिखाई और खेल -कूंद में कोई वैमनस्य नहीं है । दरअसल एक की कीमत पर दूसरे का सर्वथा तिरस्कार वर्जन के योग्य है । दोनों ही दक्षतायें समान सखाभाव से मिलजुलकर राष्ट्र के गौरव का आधार बन सकती हैं । हम भारत के युवाओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि वे बौद्धिक और शारीरिक दक्षता के समर्थ उन्नायक बनकर समन्वित आदर्शों की स्थापना करेंगें । विश्व के सभी महाकाव्यों के महानायक और महानायिकायें बुद्धि ,बल और चरित्र के आदर्श समन्वय के रूप में चित्रित किये गये हैं । ऐसी प्रतिभाओं को जन्म देना ही हमारे शिक्षा सदनों का लक्ष्य होना चाहिये और हमें ऐसे नवयुवक और नवयुवतियों को चर्चित करना चाहिये जिनमें इस प्रकार के प्रेरक समन्वय की झलक मिलती हो । विगत भले ही योरोप और अमरीका का रहा हो पर आगत भारत का ही होगा ऐसा हमारा विश्वास है । गिरीश कुमार त्रिपाठी |
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matihindimasik: Gyaan -Vigyaan Prasaar,saaskratik udbodhan ,vaishvik Chintana avam srajnaatmk Saahity ke prati samarpit masik patrika. |
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